मुहर्रम इस्लाम धर्म का पर्व है जो इस्लामिक कैलंडर के हिसाब से पहला महिना होता है. ये पर्व खुसी का नहीं बल्कि ग़म का पर्व है. मुहर्रम का पहला दिन इस्लाम धर्म के लोगों के लिए नए साल की शुरुआत होती है.
हालाँकि ये महिना साल की नयी शुरुआत होती लेकिन इसी महीने के 10 तारीख को लोग शोक मनाते हैं, इस दिन को “अशुरा” कहा जाता है. मुहर्रम के दसवें दिन मुस्लिम समुदाय के लोग हज़रत अली के बेटे और प्रोफेट मुहम्मद के पोते, इमाम हुसैन के जंग में शहीद होने के ग़म में मुहर्रम पर शोक मनाते हैं.
मुहर्रम के महीने को हिजरी का महिना भी कहा जाता है. अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद ने इस महीने को अल्लाह का महिना कहा है इसलिए मुस्लिम धर्म के लोगों के लिए ये पवित्र महिना होता है.
लेकिन 1400 वर्ष पहले इसी पवित्र महीने में एक ऐसी घटना हुई थी जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है. मुहर्रम कर्बला की जंग का प्रतिक माना जाता है. कर्बला इराक का एक प्रमुख शहर है जो इराक की राजधानी बग़दाद से 120 की.मी. दूर है.
मुस्लिम भाइयों और बहनों के लिए मक्का और मदीना के बाद कर्बला एक प्रमुख जगह है जहाँ पर दुनिया भर से लोग जाते हैं क्योंकि यहाँ पर इमाम हुसैन की कब्र है.
मुहर्रम में अंगारे पर क्यों चलते हैं
मुहर्रम का इतिहास कुछ इस तरह है – मुहर्रम के महीने में कर्बला में इमाम हुसैन और उस वक़्त के सुल्तान याजिद के बिच धर्म युद्ध हुआ था. ये युद्ध धर्म को लेकर हुआ था जहाँ हुसैन चाहते थे की दिन-ए-इस्लाम वो इस्लाम चले जो प्रोफेट मुहम्मद साहब इस दुनिया में लेकर आये थे लेकिन याजिद चाहता था की इस्लाम वैसा चले जैसा की वो चाहता है.
यजीद ने हुसैन पर अपने मुताबिक चलने का दबाव बनाया. और हुसैन को ये हुक्म दिया की वो यजीद को अपना खलीफा माने. मगर हुसैन ने यजीद की हर बात मानने से इंकार कर दिया. यजिद ने हुसैन के साथ जंग का ऐलान कर दिया और हुसैन भी उनसे लड़ने के लिए तैयार थे.
इमाम हुसैन की विनम्र सेना में केवल उनके दोस्त और परिवार शामिल थे, जिनमें महिलाएं और छोटे बच्चे भी शामिल थे. लेकिन वे हजारों की भारी-भरकम दुश्मन सेना से घिरे थे. यजीद की सेना ने हुसैन और उनके समूह पर कब्जा कर लिया और उन्हें लगातार तीन दिनों तक रेगिस्तान की गर्मी में पानी और भोजन से वंचित रखा.
क्रूर सैनिकों ने हुसैन और उनके 6 साल के बेटे को बेरहमी से मार डाला और महिलाओं को बंदी बनाकर अपने साथ ले गए. इस तरह मुहर्रम महीने के दसवें दिन हजरत इमाम हुसैन को और उनके बेटे, घरवाले और उनके साथियों को कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया था.
हुसैन की उसी क़ुरबानी को याद करते हुए मुस्लिम लोग अशुरा के दिन मुहर्रम का मातम अलग अलग तरीकों से दुःख जाहिर करते हैं. शिया मुस्लिम अपना खून बहाकर मातम मनाते हैं, मुहर्रम ताजिया सजाते हैं और सुन्नी मुस्लिम नमाज़ रोज़ा के साथ इबादत करते हैं.
मोहर्रम के दसवें दिन लोग कर्बला का किस्सा सुनकर जुलुस निकालते हैं और खुद को तीर चाकुओं से घायल कर अपना दुःख जाहिर करते हैं. बच्चे और औरतें भी इस जुलुस में शामिल होती है और अपनी छाती पर हाथों से पिट पिट कर “या हुसैन या हुसैन” का नारा लगाती हैं.
बहुत से जगहों पर मुहर्रम के दिन मुसलमान अंगारों पर नंगे पाँव चलते हैं. ऐसे धधकते शोले, जिनके करीब जाने भर से झुलस जायें, ऐसे तेज़ कोड़े जिसकी एक मार से चमड़ी उधड जाये.
लोग ना सिर्फ उन शोलों से खेल रहे हैं बल्कि कोड़ों की मार खुसी खुसी झेल रहे हैं. लोगों का ये मानना हैं की जितना जुल्म यजीद ने हजरत इमाम हुसैन पर किया था उसके आगे उनका मातम मामूली है.
कोड़ों की मार और शोलों से धधकती आग सह कर लोग शोक जताते हैं. इस साल मुहर्रम 2020 में 29 अगस्त को मनाया जायेगा. मुहर्रम से जुड़ा एक हिंदी मुहावरा है जिसे मुस्लिम लोग अकसर अपनी बातों में इस्तेमाल करते हैं, वो मुहावरा है ईद का मुहर्रम होना.
आप सबने ईद का चाँद होना मुहावरा तो सुना ही होगा जिसका मतलब होता है बहुत दिनों बाद दिखाई देना. लेकिन आपको ये नहीं पता होगा की ईद का मुहर्रम होना मुहावरे का क्या अर्थ है? इस मुहावरे का अर्थ है खुसी वाले दिन मातम का होना.
मुझे उम्मीद है की आपको इस लेख से ये पता चल गया होगा की मुहर्रम पर लोग अंगारे पर क्यों चलते हैं? अगर आपको ये लेख अच्छा लगा तो इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करिए और इस लेख से जुड़े आपके क्या विचार हैं हमारे साथ जरुर share करिए.